Tuesday 21 October 2014

विष्णुमय जग वैष्णवांचा धर्म

विष्णुमय जग वैष्णवांचा धर्म ।
भेदाभेदभ्रम अमंगळ ।।१।।
आईका जी तुम्ही भक्त भागवत ।
कराल तें हित सत्य करा ।।ध्रु .।।
कोणा ही जिवाचा न घडो मत्सर ।
वर्म सर्वेश्र्वरपूजनाचें ।।२।।
तुका म्हणे देहाचे अवयव ।
सुख दु:ख जीव भोग पावे ।।३।।
हजारों वर्षांपासून समाजातील उच्च-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्यादि भेद मिटवण्यासाठी सर्व संत, समाजसुधारक, पुढारी इ. विचारवंतांचे अखंड प्रयत्न सुरू आहेत. पण हिंदू या सहिष्णू, सर्वसमावेशक धर्माचे यथाविधी पालन करणारे आपण हिंदू विचारवंतांच्या या प्रयत्नांना कितपत प्रतिसाद देत आहोत ? खचितच बिलकूल नाही. जातीजातींमध्येच होणारे रोटी-बेटीचे व्यवहार हेच सत्य उघड करतात की आजही आपण त्या सर्वत्र समान रुपाने व्यापलेल्या ईशतत्वाला न समजता केवळ वरचा भेदच पाहण्याचीच हुशारी मिळवली आणि जोपासली आहे. आजही दुसऱ्या जातींविषयी मत्सर, आपल्याच जातीच्या लोकांना मतदान करणं, इतर जातीत मुलगी देताना पालकांचे धाबे दणाणणे, इतर जातीचा म्हणून गुरूच्या ठिकाणीही भेद पाहणे इ. घटना घडतच आहेत. पण संत काय म्हणतात, त्याकडे आपले लक्ष आहे का ? चला पाहू तर संत तुकोबा यावर काय म्हणतात.

"सर्व कणाकणांत विष्णूच वास करत आहे, हाच आम्हां वैष्णवांचा धर्म आहे. मूळात विष्णू या नावाचा अर्थच आहे की कणाकणांत वास करणारा तो. म्हणूनच भेदाभेद आम्हाला अमंगळ, त्याज्य झाले. माझ्या हृदयातला विष्णू तो खरा आणि तुमच्या हृदयातला विष्णूही तोच. मग भेदाला जागा उरतेच कुठे ? वरवरची मायिक भिन्नता तर भ्रम आहे. अंतरीची एकरुपता हीच शाश्वत आहे. विश्वास नाही बसत तर भागवत, उपनिषद, गीता, वेद चाळून पहा आणि या शाश्वत सत्यावर विश्वास ठेऊन आपलेच हित करून घ्या. त्वरा करा. अहो, देहादेहात असा ईश्वर व्यापून असता त्याची पूजा करावयास कुठे दूर जावयास नको. कोणत्याही जीवाचा मत्सर करू नका, त्याच्या ठिकाणी भेद ठेऊ नका, मग झालीच की ती सर्वेश्वराची पूजा. आपण सारे एकाच देहाचे अवयव आहोत. त्या परब्रह्माच्या विराट रुपाचे अंग आहोत. सर्वांना सुख-दुःख सारखीच आहेत. मी सुखात आनंदतो, तसेच तुम्हीही सुखात आनंदतात, मी दुःखात रडतो, तसेच तुम्हीही दुःखात रडतात. मग भेद तो कसला ? हे समजून इतरांचे अश्रू पूसा, इतरांना सुख वाटा, ईश्वराची ओळख करून द्या, वैदिक धर्माची ओळख करून द्या. हीच त्या सर्वेश्वराची पूजा आहे."

असे असताना आपण केवळ जातीवरून एखाद्या व्यक्तिला उच्च-नीच लेखणे, जात पाहून रोटीबेटीचे व्यवहार करणे, जात पाहून मतदान करणे, जात पाहून गुणगौरव करणे इ. सर्व भेदात्मक क्रिया त्या सर्वेश्वराची पूजा होतात की अपमान हे तुम्हीच तुमच्या मनाशी ठरवा आणि तसे वागा. देवाने सर्वांना कर्माचे स्वातंत्र्य दिले आहे.

Tuesday 19 August 2014

सगुण और निर्गुण ब्रह्म


सगुण और निर्गुण ब्रह्म
 सृष्टीउत्पत्ती के पूर्व ब्रह्म को जाननेवाला न कोई था, ना ब्रह्म को परब्रह्म कहनेवाला कोई था | क्यों की परब्रह्म को पर कहनेवाला अपर कुछ था ही नही | परंतु सृष्टीउत्पत्ती के साथ एक ही परमतत्त्व परा और अपरा सृष्टी में अभिव्यक्त हुए | परा, अपरा सृष्टी के नियंत्रण हेतू वही परमतत्त्व परात्पररुप में उसी परा, अपरा प्रकृति में स्थित रहता है, ठिक उसी प्रकार जैसे कोई सूत्र मोतियों की माला में मोतियों को गुँथे रहती है | परा प्रकृति और अपरा प्रकृति को व्याप्त जो परमात्मतत्त्व है उसेही हम निर्गुण ब्रह्म कहते है , क्युंकी वह सूक्ष्म-स्थूल से परे हेै , दृश्य अदृश्य से परे है , सबमें होकर भी ना होने जैसा है | वही परमेश्वर है, जो कण कण में स्थित होकर कण कण को नियंत्रित करता है, हर जीव में स्थित होकर जीव  के कर्मों का लेखा जोगा रखता है , पवित्र जीव में स्वयंभू होकर कार्यरत होता है, वही यह निर्गुण परमेश्वर है |
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सृष्टीउत्पत्ती के पश्चात जब मनुष्य प्राणी निर्माण हुवा, तब वह तत्कालीन अन्य प्राणीयों की तुलना में अधिक अकलमंद, जिज्ञासू और ज्ञान की ओर आकर्षित होनेवाला था | वह अपने आजूबाजू हो रहे नित्य परिवर्तन को देख रहा था | कही ऋतू बदल रहे थे, तो कही प्राणी जन्म ले रहे थे, तो किसी ओर प्राणी मर रहे थे, इन सारी चीजो पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था | वह सोचता था की कौन है इसके पिछे | यह किसी की करनी है या कोई व्यवस्था की यह सब परिवर्तन हो रहा है | यदि योजना है तो किसकी ? और व्यवस्था है तो किसकी ? यदि यह प्रकृति की योजना, व्यवस्था है, तो प्रकृति की योजना, व्यवस्था किसने की ? परिवर्तन तो प्रकृति का स्वभाव है , तो प्रकृति का मूल स्वभाव क्या है जहाँ से इस परिवर्तन की शुरूवात हुयी और अंत होगा ? उसकी सोच ने उसे किसी अनामिक शक्ति पर विश्वास रखने हेतू बाध्य कर दिया की कोई है जो इस परा-अपरा प्रकृति से परे है , जो इस प्रकृति का नियंता, स्वामी या कहे तो मूल स्वभाव, स्वरुप है | उसी अनामिक शक्ति को वह परमेश्वर कहने लगा और उस परमेश्वर को प्रार्थना करने लगा की , 'हे भगवन्, आप कौन हो, कैसे हो, आपका स्वरुप क्या है, आपकी व्यवस्था क्या है, आपकी हमसे कोई अपेक्षा है क्या, हम इस प्रकृतिके परिवर्तन को स्वीकार करे या परिवर्तन का विरोध करे, इससे छुटने का क्या उपाय है ? हे भगवन् आप ही हमारे प्रश्नों का समाधान करे, क्यों की आप ही इन सवालों का निराकरण करने हेतू समर्थ है |' तब ईश्वर ने अत्यंत कृपालु होकर अपने भक्तों को अपने स्वरुप की पहचान कराने स्वयं प्रकट होने का निर्णय लिया | परब्रह्म पुनः ॐकार रुपमें प्रकट हुवा | ॐकार नाद से प्रकट हुए शब्द | वे शब्द थे परमात्मा के | शब्दों में अर्थ था परमात्मा का | वही शब्द आगे जाकर वेद कहलाए | वेदों में क्या था ? वेदों जीव-शिव का ज्ञान था, ज्ञान-विज्ञान था, कर्मयोग-ज्ञानयोग-ध्यानयोग-भक्तियोग इ समस्त विश्व का ज्ञान उन वेदों में समाया हुआ था | इन्हीं वेदों में उस अनामिक शक्ति ने अपनी पहचान परब्रह्म नामसे करायी, इसिलिए हम उस परमात्मा को परब्रह्म नामसे जानते है | यह परमात्मा का निर्गुण, निराकार, अव्यक्त, अक्षय रुप है, जिसे हम निर्गुण परब्रह्म कहते है |
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वेद प्रगट हुए परंतु सामान्य अज्ञानी मनुष्य की आकलनशक्ति उन वेदों को ग्रहण नहीं पायी | इस बात का खयाल उस परमात्मा ने पहलेसे किया था और यही कारण है की उस समय वेदों के रुप में प्रकट होने से पहले ही  परमात्मा ऋषी मुनीयों के रुप में प्रकट हो चुका था | जी हाँ, परमात्मा मनुष्य देह में, एक नहीं अनेक देहों में अवतरित हो चुके थे और जब वेद प्रकट हुए तो उन्हीं ऋषी-मुनियों से वेदों को ग्रहण कर , कंठस्थ कर लोगो तक पहुँचाने का कार्य किया | ऐसे ऋषी-मुनीयों के, राजर्षीयों के रुप में परमात्मा ही अवतरित हुए और होते रहेंगे, इस परमात्मा के रुप को सगुण परब्रह्म कहते है | आज भी परमात्मा सगुण रुप में अवतरित होते है, कहीं ऋषी-मुनीयों के रुप में, कहीं संतों के रुप में , कहीं लोकनेता के रुप में वे अपना कार्य कर रहे है | धर्म संस्थापना और अधर्म का नाश यही सगुण ब्रह्म का प्रयोजन होता है | श्रीराम से लेकर आज विवेकानन्द, सावरकर तक सभी महात्माओं ने यहीं कार्य किया, क्युं की इनका जन्म ही महानतम कार्यों के लिए हुआ था , इनमें ईश्वरी अंश विद्यमान था | हम कितने भाग्यवान है की परमात्मा न केवल सृष्टी का निर्माण करता है अपितु हमारे साथ हमें जीवन जिना सिखाता है, अधर्म से युद्ध करना सिखाता हैै और जीवनरुपी बंधन से मुक्त होना सिखाता हैै | जिस प्रकार खाने के लिए धान्य निर्माण किया, उसी प्रकार हमारी मुक्ति हेतू सगुण परब्रह्म कि योजना उसी परब्रह्म ने की हुयी है | हमें सिर्फ उस सगुण ईश्वर, अर्थात गुरू को शरण जाकर ज्ञान ग्रहण करना है, फिर सहज ही हमारी नांव भवसागर के पार लग जाएगी | जय श्रीराम | जय श्रीकृष्ण |

Saturday 26 July 2014

जसा देव-धर्म तसा राष्ट-धर्म


देव-धर्माविषयी जागरुक असणारा हिंदू राष्ट्रधर्माविषयी काही तेवढा जागरुक दिसत नाही. वास्तविक साधी गोष्ट आहे की राष्ट्र आपुले नसले तर कोण आपला देव-धर्म पाळू देईल का ? पण ५००० वर्षांच्या अनुभवातूनही हिंदू काही शिकला नाही. हिंदू धर्मावर बौद्ध राज्यकर्त्यांनी केलेला अत्याचार, त्यानंतर ग्रीक असो की शक, हुण, कुशाण असो की मुसलमान !   साऱ्यांनीच हिंदूंच्या धर्मावर हल्ला चढवला. ब्राह्मणांना तर जिवंत जाळण्याइतपत कृत्ये झालीत मग तेथे सेवकांचे काय हाल, स्त्रीयांचे तर हाल विचारूच नका. मुसलमानांनी किती स्त्रीयांना पळवलं, लुटलं, चिरडलं काही गणनाच नाही. काही जास्त नाही , २५० वर्षांपुर्वीच्या या गोष्टी. तरी आज आपण विसरलो आणि कश्मीर मध्ये भारताचा झेंडा जाळला जातो, पाकिस्तान जिंदाबाद चे नारे लावले जातात आणि आपण निष्क्रीय ! सरकार कश्मीर मध्ये पाऊल टाकायलासुद्धा घाबरते का ? माझ्या आईचे मस्तक उडवले गेले, तरी काय माझ्या सशक्त बंधूंना जाग नाही येणार ? पाकिस्तान , बांग्लादेश आधीच आपण गमावला आहे, ही भूमीची भूक यांची संपणार नाही आवरल्याशिवाय ! यांच्या पाशवी भूकेसाठी अजून काय काय बळी द्यायला तयार आहे हिंदू ? देव-धर्मसुद्धा बळी देशील ? 

विवेकानंद म्हणाले होते या काळात राष्ट्र हीच देव आहे. याची जाणीव प्रत्येकाने ठेवावी व जागवावी.

Sunday 6 July 2014

माझ्या जीवीची आवडी


आज एक सुंदर अभंग देखते है ।


इस अभंग में संतजन दुसरे भक्तों से कह रहे है,"श्रीहरी को पाना ही पंढरी पाना है अन्यथा नहीं, अपनेे मन को एक ही रंग में रंग लो हरी रंग में और उस हरी के गुणों को अपनालो, यही परिपूर्णतम भक्ति है ।
हमनें पहले अनुभव किया, फिर आप से कह रह है । परंतु जागृति,स्वप्न,सुषुप्ति इन अवस्थाओं में सह मीलन जान नहीं आता , परंतु जो उस आनंद को चखले एक बार फिर कभी न भूले और हरी बन कर रह जाए ।
सगुण और निर्गुण दोनों  एक ही है, यह जान ले वह सगुण  को शरण जाकर निर्गुण को पा लेता है । यह पद्म पद्म युगों का अनुभव है ।"

English :
The only reason behind my existence is to unite my Self in Supreme self.
My mind has taken form of Supreme one and my characteristics are no more different than that of Supreme one. Yes this cannot be experienced in 3 states of Jiva Jagruti, Swapna, Sushupti, but when at the very moment you meet HIM , you meet HIM forever…
The only way to attain this is to learn undistinguished unison of SAgun And Nirgun form of eternal. Sagun are all his incarnations including Ansh,Anshansh, Purna, Paripurna etc. and Nirgun is just only Nirgun...Only by knowing this, one surrenders to Sagun he knows and thus reaches Pandhari. Just as Dnyanoba reached Pandhari by surrendering to Nivruttinath.

Sunday 1 June 2014

ईश्वरत्व और जीवत्व क्या है???


परमात्मतत्त्व/ईश्वरत्व :

जब कुछ नहीं था , ना ग्रह, तारे, ना व्हॅक्यूम, ना अंतरिक्ष और ना कोई जीव; तब जो था वह स्वयंस्फुर्तीसे स्फुरण पा रहा था, उसे ना आकार था, ना रंग, ना रुप, वह था यह कौन कहता क्यूंकी उसके अलावा उसे जाननेवाला कुछ नहीं था | आप अगर व्हिज्युअलाईज करना चाहते हो, तो घना गहरा अंधकार बस यहीं चित्र मन में लाए | गहरा घना अंधकार था | समय भी न हीं था, क्यूंकी समय की मर्यादा तो व्यक्त(material) को है, अव्यक्त(non-material)को नहीं |
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वह परम तत्त्व(eternal/divine soul) स्वयंस्फुर्तीसे परिवर्तीत हुवा और प्रकट हुयी शक्ति/माया
divine energy) | उस समय जो ध्वनी हुवा वह ओमकार था , वह था सृष्टी का आरंभ | ओमकार से अभिव्यक्त हुयी मूल माया जो की अव्यक्त थी मतलब कुछ नहीं, केवल घना अंधेरा | वह शक्ति सत्त्व , रज, तम इन गुणों के प्रभाव से परिवर्तनशील थी | अव्यक्त शक्ति फिर पंचीकरणादि क्रियाओं से अव्यक्त पंचमहाभूतों के रूप में आयी (वायू, अग्नी,जल,पृथ्वी,नभ) | इन अव्यक्त पंचमहाभूतों का रुपांतर हुवा व्यक्त पंचमहाभूतों में | व्यक्त पंचमहाभूतों मे परिवर्तन तथा अन्य क्रियाओं से स्थित्यंतर हो आज की सृष्टी निर्माण हुयी | व्यक्त पंचमहाभूत और अव्यक्त पंचमहाभूतों से एक विशिष्ठ प्रकृति(material) निर्माण हुयी, जिसे हम जीव के संज्ञा से जानते है |
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यह जीव विशेष क्यू है ?
इसमें कौनसे इंद्रिय है ? जीव समुच्चय है सूक्ष्म मन, बुद्धी, चित्त तथा 'अहं' स्फुरण/चैतन्यतत्त्व : (consciousness)| जीव परा(beyond visibility) प्रकृति है और जीवमें स्थित शुद्ध चैतन्यतत्त्व पुरुष है यह गीता कहती है | (कई लोग परा प्रकृति को पुरुष कहते है, पर हम नहीं कहेंगे क्यूंकी पुरुष की व्याख्या पिंड से लेकर ब्रह्मांड तक हर एक के लिए बदलता है अर्थात सापेक्ष है, अतः हम मूल चैतन्यतत्त्व को ही पुरुष कहेंगे |) जीव के अलावा १० स्थूल इंद्रिय और ११ वा स्थूल मन से बनता है हमारा देह जो की अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है |
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यह सब प्रकृति और पुरुष का खेल कल्प के अंतकाल में फिरसे अव्यक्त रूपमें लीन होता है और नये कल्प के आरंभ में वह अव्यक्त से पुनः व्यक्त रूपमें आता है |
यहां जो परमतत्त्व है, उसे हम आज परब्रह्म के नाम से जानते है | 
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स्वयं उस परमतत्त्वनेही |
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कैसे ? कब ?
जब मनुष्य की निर्मिती हुयी, तब मनुष्य को ईश्वर के विषय में सहज कुतूहल जागा | मनुष्य देख रहा था मौत और नई जिंदगी का निर्माण ! पर ऐसा क्यूं चल रहा था यह वो नहीं जान पाया | तब स्वयं परमतत्त्व किसी मनुष्य के देह में अवतरित हुये और योग्य समय पर फिर वह ओमकार ध्वनी आसमान में गुंज उठी और उसके बाद जो शब्द निकले वो थे परमात्मा के शब्द, उन शब्दों का आशय भी परमतत्त्व का स्वरुप ही था , उन शब्दों को हम आज वेदों के रुप में जानते है | अवतरित परमतत्त्व ने उन वेदों को ग्रहण कर , समझ कर , कंठस्थ भी कर लिया | फिर उन अवतारी ऋषीमुनीयों ने वह वेद सभी को उनकी ग्रहणशक्ति के अनुसार सिखाने शुरू कर दिये |
कुछ जीव विचारी थे, उन्होंने सहज तत्त्व ग्रहण कर लिया, कुछ ज्ञान ग्रहण नहीं कर पा रहे थे पर भक्त थे, तो उनको समर्पण मार्ग बताया | कुछ लोग समर्पण भी ना कर पाते, उन्हे मूर्तीपूजा से प्रारंभ करने को कहाँ | इस प्रकार यह सब ईश्वरभक्त अपने अपने तरिके से उसी परमतत्त्व की खोज करने लगे और इस वैदिक पथ पर सभी उस परमतत्त्व को पाते है यह त्रिकालाबाधित अनुभव है |

हर जीव का प्रवास पुनः परमात्मतत्त्व में लीन होकर ही खत्म होता है | तब तक जन्म-मृत्यू अटल है |
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जीव परब्रह्म का अंश है या शक्ति का?
शिव और शक्ति यदि एक-दुसरे को एक मानते है, तो आदि शंकराचार्य जी क्यों यह कहते है की 'शिवोऽहम् शिवोऽहम्' (मै शिवस्वरुप हूँ) ना की 'शक्ति अहम्' (ना की शक्तिस्वरुप) ?
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सृष्टी = शिव(ब्रह्म) + शक्ति(माया)

मनुष्य = आत्मा + जीव + दे
यह 'आत्मा' ही परमात्मस्वरुप है, तथापि जीव और देह मायिक अर्थात माया के प्रभाव में रहते है | जो हमारे देह में है, वैसी ही संरचना सृष्टी की है | 
अर्थात सृष्टी में जो परम तत्त्व , नित्य तत्त्व है वह शिव , शिव ब्रह्म और जो नश्वर तत्त्व है, वह शक्ति है |
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यह शक्ति समय समय पर नित्य परब्रह्मतत्त्व में विलीन होती है, तथा पुनः परब्रह्मतत्त्व में  स्वयंस्फुरण हो ॐ कार से प्रकट भी होती है |
शक्ति का प्रथम रुप है - मूळ माया अथवा भागवत की भाषा में परमात्मा का स्वयं-अहं स्फुरण |
द्वितीय रुप है - अव्यक्त प्रकृति अर्थात् अहंकार और गुणों से अव्यक्त पंचमहाभूत |
तृतीय रुप है - व्यक्त प्रकृति/सूक्ष्म पंचमहाभूतों से स्थूल पंचमहाभूत |
अंतिम रुप है - सृष्टी जो हमें नजर आती है,
यह संपुर्ण प्रक्रिया विस्तारपुर्वक कई ग्रंथों में है | (उदा. विवेकचुडामणी, आदि शंकराचार्य यह गुगल पर है |)
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हर नये रुप के साथ पुराना रुप पुर्णतः नये रुप में परिवर्तीत नहीं होता, बल्कि सूक्ष्मतः व्याप्त रहता है, जिस प्रकार स्निग्धता दूध, दही और घी सभी रुपों में समान रुप से व्याप्त रहती है, ठिक उसी प्रकार परब्रह्म इस व्यक्त प्रकृति को व्याप्त किये हुए है, अतः सृष्टी को हम शिव और शक्ति का खेल के रुप में जानते है | ठिक उसी प्रकार हमारे जीव और देह को आत्मतत्त्व सूक्ष्मतः व्याप्त है, वहीं आत्मतत्त्व हमारी पहचान , हमारा स्वभाव अर्थात अध्यात्म है |
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यह परमात्मतत्त्व प्रकृति को व्याप्त होने के कारण ही कहीं भी नर/नारी/पशु/स्तंभ किसी भी रुप में आविष्कृत हो सकता है, उसे हम सहसा अवतार कहते है | इसके अलावा जीव जो शिवस्वरुप प्राप्त कर लिया, वह भी परमात्मस्वरुप ही बन जाता है, देह रहते हुए | वहीं मोक्ष है, ठिक जैसे कई संत मुक्त हुए |
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मै यह क्यूं बता रहा हूँ ?
ईश्वर के सत्य स्वरुप को पहचाने बिना हम उसे प्राप्त नहीं कर सकते | उसे जाने बिना की गयी प्रार्थना अपुर्ण होती है, ईश्वर को पहचान उसे प्राप्त करने पर ही पूर्णता आती है |
अतः हम शिवस्वरुप है यह जान कर मन, बुद्धी और देह को मायिक भ्रम से बचाना आवश्यक है ताकी हम ईश्वरी पथ से ना भटके |
जिन्हे ईश्वरी पथ पर नहीं चलना है, उनके बारे में मेरा कुछ मत नहीं है |

Saturday 19 April 2014

स्वातंत्र्य सेनानी वीर सावरकर


स्वातंत्र्य सेनानी वीर सावरकरअन्याय से पूर्ण एक अमरगाथा

यह कहा जाए कि आधुनिक भारतीय इतिहास में जिस महापुरुष के साथ सबसे अधिक अन्याय हुआ, वह सावरकर ही हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सावरकर ‘नाख़ून कटाकर’ क्रन्तिकारी नहीं बने थे। 27 वर्ष की आयु में, उन्हें 50-50 वर्ष के कैद की दो सजाएँ हुई थीं। 11 वर्ष के कठोर कालापानी के सहित उन्होंने कुल 27 वर्ष कैद में बिताए। सन 1857 के विद्रोह को ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ बताने वाली प्रामाणिक पुस्तक सावरकर ने ही लिखी। ब्रिटिश जहाज से समुद्र में छलांग लगाकर, सावरकर ने ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया। ‘हिंदुत्व’ नामक पुस्तक लिखकर सावरकर ने ही भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया। जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का विरोध, पूरी शक्ति से सावरकर ने ही किया। जातिवाद और अश्पृश्यता का जैसा विरोध वीर सावरकर ने किया था, वैसा तो कांग्रेस तब क्या, आज भी नहीं कर सकती है।

लेकिन देश उन्हें कैसे याद करता है? भारत रत्न प्राप्त कर चुके 41 महानुभावों के सूचि में वीर सावरकर का नाम नहीं है। उनके जन्मदिन पर संसद में उनके चित्र पर माल्यार्पण करने के लिए सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं होता है। सेक्युलरिज्म के स्वयम्भू दूत मणि शंकर अय्यर ने तो सेल्युलर जेल से भी सावरकर की यादों को मिटने का प्रयास किया जहाँ वीर सावरकर ने कालापानी की सजा काटी थी। अपनी चमड़ी बचाने के लिए सावरकर के लंबे और एतिहासिक भाषण के एक वाक्य को उठाकर उन्हें ‘हिन्दू जिन्ना’ बनाने की कोशिश होती रही है और उन्हें विभाजन के लिए भी जिम्मेवार ठहराने की कोशिश होती रहा है। मानो भारतीय जनमानस के ‘स्वयम्भू’ प्रतिनिधि सावरकर ही रहे हों। जबकि सत्य तो यही है कि सावरकर ने अंत तक विभाजन को स्वीकार नहीं किया। 
सावरकर को बदनाम करने के निकृष्ट अभियान में भारत के तथाकथित वामपंथी और गांधीवादी बुद्धिजीवियों ने अपूर्व एकता का परिचय दिया। इन बुद्धिजिवियों ने सावरकर पर तीन मुख्य आरोप लगाये: 
1) अंग्रेजों से माफ़ी मांगना, 
2) दूसरा हिन्दू साम्प्रदायिकता का जनक होना, 
3) गांधी के हत्या का षड़यंत्र रचना। 

आगे हम इन आरोपों की पड़ताल करेंगे…
सावरकर पर पहला आरोप है अंग्रेजों से क्षमा याचना का
यह ठीक है कि जब 1913 में जब गवर्नर-जनरल का प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो सावरकर ने अपनी याचिका पेश की। यह ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्रांति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने का और राजभक्ति का आश्वासन दिया लेकिन ज़रा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडोक ने क्या कहा| क्रेडोक ने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि ‘सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने ह्रदय परिवर्तन का ढोंग कर रहा है|’ उसने यह भी लिखा कि सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है| भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसम खाते हैं और यदि भारत भेज दिया गया तो वे उसे भारतीय जेल तोड़कर निश्चय ही छुड़ा ले जाऍंगे| इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक ‘काले पानी’ की महायातना भोगी| यहाँ दो बातें समझना आवश्यक है। पहली यह कि कालापानी की सजा इतनी भयंकर हुआ करती थी कि वहाँ से कोई व्यक्ति जीवित वापस नहीं आता था। सावरकर के आदर्श वीर शिवाजी थे, उन्हें पता था कि राष्ट्र की सेवा के लिए जीवित रहना आवश्यक है। उन्हें यह भी अच्छी तरह पता था कि अंडमान द्वीप से निकलने का एकमात्र रास्ता यह ‘हृदय-परिवर्तन’ ही है। इसलिए उन्होंने यह प्रयास किया यद्यपि असफल रहे। यदि अंग्रेजों के सामने याचिका प्रस्तुत करना अपराध है तो कांग्रेस का एक भी बड़ा नेता ऐसा नहीं, जिसने इसका उपयोग नहीं किया हों। जहाँ तक राजभक्ति के आश्वासन की बात है तो गांधीजी ने तो कई बार राजभक्ति की शपथ ली थी और प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार का साथ भी दिया था।जो वामपंथी बुद्धिजीवी सावरकर का उपहास करते रहे हैं उन्हें लेनिन और स्टालिन के कारनामों की जानकारी होनी ही चाहिए।

दूसरा आरोप सावरकर पर, हिन्दुवादी साम्प्रदायिकता के जनक होने का है। 
पहले तो यह तय हो कि इस धरा पर हिन्दू साम्प्रदायिकता जैसा कुछ है भी या नहीं। संप्रदाय का आशय होता है ‘सम्यक प्रकारेण प्रदीयते इति सम्प्रदाय’। अर्थात एक गुरु के द्वारा समूह को सम्यक रूप से प्रदान की गई व्यवस्था को ‘संप्रदाय’ कहते हैं। इस अर्थ में इस्लाम, इसाई, मार्क्सवादी, माओवादी, संप्रदाय हो सकते हैं। हिन्दू समाज के अंदर भी जैन, बौद्ध, सिक्ख, नाथ इत्यादि कई संप्रदाय हैं लेकिन स्वयम हिन्दू समाज ही एक संप्रदाय नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हुए कहा था कि ‘religion’ को भारतीय सन्दर्भ में धर्मं का समानार्थी बताना बहुत बड़ी भूल थी। ‘religion’,संप्रदाय का समानार्थी शब्द है, धर्मं का नहीं। इस गलत अनुवाद के कारण लोग अब धर्म और संप्रदाय को पर्यायवाची शब्द समझने लगे हैं। मानो ‘धार्मिक होना’ और ‘साम्प्रदायिक होना’ एक ही बात हों। वीर सावरकर की लिखी एक लघु पुस्तक है ‘हिंदुत्व’। भारतीय जनमानस पर प्रभाव के दृष्टिकोण से देखें तो यह उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण रचना है। यदि प्रति शब्द प्रभाव के गणित से देखा जाए तो ‘हिंदुत्व’ निश्चय ही मार्क्स के ‘कैपिटल’ से अधिक प्रभावशाली पुस्तक प्रमाणित हुई है। ‘हिंदुत्व’ भारतीय राष्ट्रीयता को परिभाषित करने वाली पहली पुस्तक है। सावरकर के इस निर्मम थे। वे यथासंभव तथ्यपरक बने रहने की कोशिश करते थे। अपने पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में सावरकर ने किसी का तुष्टिकरण नहीं किया है बल्कि कटु सत्य बताया है। हाँ, लगभग 90 वर्षों के पश्चात, आज उसमे से कितने तर्क प्रासंगिक रह गए हैं और कितने अप्रासंगिक, यह अलग प्रशन है। उन्होंने आर्यों के मध्य एशिया से भारत में आने की बात कही है क्योंकि उस समय तक यह प्रमाणित नहीं हुआ था कि सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में एक ही रक्त समूह के लोग बसते हैं और तब तक स्थापित मान्यता यही थी कि भारतीय आर्य बाहर से आये हैं। उन्होंने हिन्दू के परिभाषा में उन सभी संप्रदायों को शामिल किया है जिनकी पुण्यभूमि भारत ही है। लेकिन सावरकर मुसलमानों एवं ईसाईयों को हिन्दू स्वीकार करने से इनकार करते हैं और इसका आधार इनके पुण्यभूमि के भारत से बाहर होना है।उस समय में जो वैश्विक और विशेषकर भारतीय परिस्थितियां थी उसमे ‘पुण्यभूमि’ के लिए निष्ठा के आगे ‘पितृभूमि’ के लिए निष्ठा नगण्य थी। ‘हिंदुत्व’ सन 1923 में लिखी गयी थी। उस समय खिलाफत आंदोलन चरम पर था। भारत की परतंत्रता के प्रति प्रायः उदासीन रहने वाला मुस्लिम समाज अपने पुण्यभूमि की रक्षा के लिए पूरी तरह उद्वेलित था। कांग्रेस और कांग्रेस के कारण हिंदू समाज भी खिलाफत के समर्थन में खड़ा था। जबकि इस आंदोलन के जोश में मुस्लिम समाज भारत में ही निजाम-ए-मुस्तफा कायम करने पर तुला हुआ था। उसी कालखंड में, केरल के मोपला में हिंदुओं का भीषण संहार हुआ और उनका सामूहिक धर्मान्तरण भी किया गया। उसी दौर में मुस्लिम लीग ने अफगानिस्तान के बादशाह को भारत पर कब्ज़ा करने का निमंत्रण दिया। ऐसे दौर में सावरकर राष्ट्रवाद को भला और कैसे परिभाषित करते? वे ‘इश्वर अल्लाह तेरेनाम’ कैसे गाते जबकि ‘अल्लाह के बंदे’, ‘इश्वर के भक्तों’ को मिटा कर भारत को ‘दारुल इस्लाम’ बनने पर तुले हुए थे? वे उपन्यास नहीं लिख रहे थे वरन भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित कर रहे थे, तो क्या वीर सावरकर कर्णप्रिय मिथ्या लिखते या कटु सत्य? निस्संदेह उन्होंने कटु सत्य चुना। वीर सावरकर ने हिंदुत्व में लिखा भी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में अभिन्न सम्बन्ध होने के बाद भी दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हैं। उन्होंने कई बार पर स्पष्ट किया है कि हिंदुत्व, हिन्दुइज्म (Hinduism) नहीं है। 

तीसरा आरोप है उनपर, महात्मा गांधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल होने का।  
महात्मा गांधी की हत्या हिंदू महासभा के एक कार्यकर्ता ने की थी। निवर्तमान शासन ने सोचा कि क्यों न एक झटके में ही सभी हिंदुत्व समर्थ शक्तियों को समाप्त कर दिया जाये। इसीलिए गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में वीर सावरकर को भी आरोपी बनाया गया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी, सावरकर भी गिरफ्तार हुए और गोलवलकर गुरूजी भी। लेकिन न्यायालय में यह प्रमाणित हुआ कि सावरकर गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में शामिल नहीं थे वरन उन्हें गाँधी के हत्या के षड़यंत्र में आरोपी बनाने का षड़यंत्र हुआ था। सावरकर ससम्मान मुक्त किये गए (लेकिन हमें यही पढाया जाता है कि उन्हें ‘सबूतों के अभाव’ में छोड़ दिया गया। सबूत होने के बाद भी किसी को न्यायलय से मुक्त किया जाता हो तो हमें भी बताया जाए)।वीर सावरकर के विरुद्ध साजिशकर्ताओं को संभवतः पता रहा हो कि उन्हें सजा देने लायक कोई सबूत नहीं है। लेकिन वे हिंदुत्व के जनक को बदनाम करना चाहते थे। वीर सावरकर का राजनीतिक करियर यहीं समाप्त हो गया और हिंदू महासभा भी पुनः खड़ी नहीं हो सकी। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर गुरूजी ने कहा भी था कि गाँधी हत्या के आरोप के कारण संघ 30 वर्ष पीछे चला गया। वीर सावरकर और आरएसएस पर इस षड़यंत्र में शामिल होने का झूठा आरोप यह प्रमाणित करता है कि ‘गांधीवादियों’ ने गाँधी के चिता के साथ ही गांधीवाद भी जला दिया था। 
भारतीय राजनीति में वीर सावरकर कि तुलना महात्मा गाँधी से ही हो सकती है। दोनों अलग ध्रुव थे, गांधी आदर्शवादी थे तो वीर सावरकर यथार्थवादी। इसमे संदेह नहीं कि सावरकर कि अपेक्षा गाँधी की स्वीकार्यता बहुत अधिक थी। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है कि गाँधी का भारतीय राजनीति में आगमन सन 1920 के आसपास हुआ था जबकि सावरकर ने सन 1937 में हिंदू महासभा में का नेतृत्व लिया था (सन 1937 तक वीर सावरकर पर राजनीति में प्रवेश की पाबन्दी थी)। जब गांधी भारतीय राजनीति में आये तो शिखर पर एक शुन्य था, तिलक और गोखले जैसे लोग अपने अंतिम दिनों में थे। लेकिन जब वीर सावरकर आये तब गाँधी एक बड़े नेता बन चुके थे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लोग महात्मा गाँधी को चमत्कारी पुरुष मानते थे और उनके नाम से कई किंवदंतियाँ प्रचलित थी, जैसे कि वे एकसाथ जेल में भी होते हैं और मुंबई में कांग्रेस की सभा में भी उपस्थित रहते हैं (पता नहीं इस तरह की कहानियों को प्रचलित करने में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कितना योगदान है)। ऐसे में सावरकर गाँधी के तिलिस्म को तोड़ नहीं सके, यद्यपि पढ़े लिखे लोगों के मध्य उनकी स्वीकार्यता अधिक थी।कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर प्रसिद्ध वकील निर्मलचन्द्र चटर्जी तक उनके अनुयायियों में थे (इन्ही निर्मल चंद्र चटर्जी के पुत्र हैं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष- सोमनाथ चटर्जी)। यदि सावरकर भी सन 1920 के आसपास ही राजनीति में आये होते तो जनमानस किसके साथ जाता, यह कोई नहीं जानता। वीर सावरकर उस दौर में एकमात्र राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने गाँधी से सीधे लोहा लिया था। कांग्रेस के अंदर और बाहर भी, ऐसे लोगों की लंबी सूचि है जो गाँधी से सहमत नहीं थे लेकिन कोई भी उनसे टक्कर नहीं ले सका। लेकिन सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति दर्ज कराई। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का पूरी शक्ति से विरोध किया और इसके घातक परिणामों की चेतावनी दी। इससे कौन इनकार करेगा कि खिलाफत आंदोलन से ही पाकिस्तान नाम के विषवृक्ष कि नीव पड़ी? इसी तरह सन 1946 के अंतरिम चुनावों के समय भी उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी दी कि कांग्रेस को वोट देने का अर्थ है ‘भारत का विभाजन’, वीर सावरकर सही साबित हुए। वीर सावरकर की सोच पूरी तरह वैज्ञानिक थी लेकिन तब भारत उनके वैज्ञानिक सोच के लिए तैयार नहीं था। यह सच है कि सावरकर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुए। लेकिन सफलता ही एकमात्र पैमाना हो तो रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह,
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे कई महान विभूतियों को इतिहास से निकाल देना चाहिए? स्वतंत्रता के बाद के दौर में भी देखें, तो राम मनोहर लोहिया और आचार्य कृपलानी जैसे लोगों का कोई महत्व नहीं? वैसे सफल कौन हुआ? जिसके लाश पर विभाजन होना था उसके आँखों के सामने ही देश बट गया। सफलता ही पूज्य है तो जिन्ना को ही क्यों न पूजें? उन्हें तो बस पाकिस्तान चाहिए था और ले कर दिखा दिया। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगडी कहते थे कि व्यक्ति की महानता उसके जीवनकाल में प्राप्त सफलताओं से अथवा प्रसिद्धि से तय नहीं होती वरना भवीष्य पर उसके विचारों के प्रभाव से तय होती है। वीर सावरकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और उनका प्रभाव कहाँ तक होगा, यह आनेवाला समय बताएगा। इतिहास सावरकर से न्याय करेगा अथवा नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इतिहास कौन लिखेगा।

Tuesday 4 March 2014

राम सद्गुरूची कृपा...

"राम सद्गुरूची कृपा,
जेणे दाखवे स्वरुपा,
धरा सद्गुरू चरण,
जेणे चुकवी जन्म-मरण |"


संतांनी स्थूळ आणि सूक्ष्माहून वेगळे, सत् आणि असत् हून निराळे तरी सर्व रुपांमध्ये जे स्वतः नटलेले आहे, त्या परमात्म्याची भक्ति करावी आणि त्या परमात्म्याने ही स्वतः संताच्याच रुपात अवतरित होऊन ही संतपरंपरा अखंड सुरू ठेवावी, हा विलक्षण खेळ ज्याच्या लक्षात येतो, तोच संतांना परब्रह्मस्वरुप जाणून त्यांना ज्ञानासाठी शरण जातो


      मनुष्याला मन, बुद्धी तसेच इतर ज्ञानेंद्रिये आणि त्यांच्या सीमित शक्ति यांच्या पलीकडे जाऊन त्या परमात्म्याला जाणता येत नाही, तरी तो दिनाचा दयाळू, मनाचा मवाळू होऊन संत-सद्गुरू म्हणजेच ऋषीमुनींच्या रुपात अवतरित होतो आणि जीवांना स्वतःची, परमात्मस्वरुपाची ओळख नव्हे तर भेटच घडवून देतो. अशा प्रकारे सतत देवच अवतरित होऊन ही संत-परंपरा अखंड सुरू ठेवतो ! 'एकोहम् बहुस्याम्' या खेळाचाच हा एक भाग !


      हे संत म्हणजेच सगुण ब्रह्म सामान्य लोकांमध्ये अतिसामान्य होऊन राहतात, म्हणून अहंकाराचा आडपडदा ठेऊन कोणी त्या सगुण ब्रह्माला जाणू शकत नाही, पण त्यांच्या चरणी सर्व अहंकार, संकल्प-विकल्प सोडून देऊन जो स्वतःला ओवाळून टाकतो, तो सहजच त्यांचे स्वरुप प्राप्त करतो.  दिवाळीत एका दिव्याने अनेक दिवे आपण लावतो, अगदी तसेच हे ! संताचा एवढा लाभ असेल , तर त्यांचा अपमान जर आपल्याकडून कधी झाला असेल तर त्याची शिक्षा काय असेल, तुम्हीच विचार करा !


      असे असूनही संतांना जाणून न घेता त्यांना नावे ठेवणारे, त्यांच्या साधूपणावर हसणारे लोकही आहेत, एवढ्यावर ते कर्मदरिद्री लोक थांबत नाही, तर भक्तिमार्गाला लागलेल्या लोकांची भक्ति मोडण्यासाठी कट-कारस्थाने करावयास देखील मागे-पुढे पहात नाही. अशांना जर कठोर शब्दात ठोकून काढले नाही, तर आपणच आपला स्वधर्म चुकून पापाचे वाटेकरी होऊ, यात शंका नाही.


        जसा निर्गुण निराकार नित्य आहे, तसाच सगुण साकार आहे, नव्हे नव्हे त्यासाठीच हा सृष्टीचा पसारा आहे, हे जाणून आपणही नरेन्द्रांसारखी ज्ञान आणि संताच्या शोधाची तळमळ जोपासावी व ज्याक्षणी , ज्याचरणी तुम्हाला ईश्वरी कार्याचा प्रत्यय येतो, तेथे स्थिर होऊन साधना साधावी. अहो, नदी असून जो पावसाच्या पाण्याची वाट पाहतो, तो खूळाच की ! त्याचप्रमाणे संतांना सोडून जो दगड-बिंदूंना भजतो, तोही अडाणीच की ! तुम्हीच विचार करा !


Thursday 9 January 2014

भक्ति शक्तिचा स्त्रोत तर शक्ति भक्तिचे प्रकट रूप




                सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी परमात्म्याची ही सृष्टी ! सृष्टीची रचना करून त्याच सृष्टीतील मनुष्यप्राण्यांनी आपापल्या नियत कर्माचे, विहित कर्माचे म्हणजेच स्वधर्माचे पालन करावे एवढी माफक त्याची अपेक्षा ! पण हे न जाणता कित्येक आसुरी शक्ति स्वधर्माचे पालन करणाऱ्या सज्जनांना ' त्राही भगवन् ' करून सोडतात. स्वतः तर धर्म जाणत नाहीत, पण जाणत्यांना त्यांच्या जाणतेपणाची जणू काही शिक्षा करतात.  आपल्या हाती असलेल्या सत्तेचा, संपन्नतेचा दुरुपयोग करून स्वतःच्या तुच्छ, क्षणिक सुखांचा पाठपुरावा करतात. कारण अज्ञान !  जेवायचे कसे याची समज नसलेल्या लहान मुलासमोरील जेवणाचे ताट तसेच राहते, बहुधा तो सांडासांड करतो, त्याप्रमाणे सत्ता हाताशी असली, सामर्थ्य अंगाशी असले, तरी ज्ञानाशिवाय त्याचा उपयोग करणे कोणाला जमत नाही. सामर्थ्य म्हटले तरी जीव-देहाचेच बल , कधीतरी त्याचा उणेपणा अनुभवाला येणारच !


                 हेच जाणून आपल्या आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्माच्या तत्त्वांनी शक्तिला आत्मज्ञानाची जोड  असल्यासच त त्या शक्तिला अर्थ आहे, अशी नीती सांगितली. हे केवळ वैदिक वचन नाही, तर हा आपला अनुभवही आहे. आठवून पहा इतिहास ! अर्जुन एकटा धर्मसंस्थापना करूच शकला नसता जर त्याला धर्म काय आणि अधर्म काय हे सांगायला स्वतः भगवान श्रीकृष्ण नसते ! श्रीरामरायांनी देखील सुग्रीव, हनुमंत आणि अवघी वानरसेना यांच्या शक्तिला भक्तिचे अधिष्ठान प्राप्त करून दिले. आचार्य चाणक्यांनी देखील धर्म संस्थापनेसाठी चंद्रगुप्त सारखा बळ आणि समर्पण दोहोंमध्ये सर्वश्रेष्ठ असा चंद्रगुप्त शोधून काढला व त्याला धर्माधर्माची शिकवण देऊन त्यातून एक महान सम्राट घडविला. महाराणा प्रताप देखील संत-सद्गुरुंच्याच कृपाशिर्वादाखाली इतिहासात अमर झाला. शिवाजी राजे यांना देखील समर्थ रामदास स्वामींनी आज्ञा केली, 'अवघा हलकल्लोळ करावा | महाराष्ट्र धर्म वाढवावा |' आणि शिवरायांनी धर्माची ध्वजा स्वराज्याच्या रूपात उभारून सर्व महाराष्ट्राच्या संत-सज्जनांना जणू गुरुदक्षिणाच दिली.


                   शक्तिचा स्त्रोत भक्ति आहे. अशी भक्तिच्या मुशीतून साकारलेली शक्ति अलौकिक असते, धर्मसंस्थापनेस कारण ठरते. कारण अखंड विजयश्रीसाठी जे धर्माचे अधिष्ठान आवश्यक असते, ते गुरुभक्तिनेच प्राप्त होते. धन्य आहे हा हिंदू धर्म , जेथे ही भक्ति-शक्तिची परंपरा जोपासणारी गुरुशिष्यपरंपरा आजही जपली आहे व राहील.