आधुनिक भारत के इतिहास के छः सुवर्णमयी कालखंड

भारत के आधुनिक इतिहास की छः विजयगाथाए, जो सच्चे भारतवासी को इस युग के अंत तक प्रेरणा देगी और एक हमे सोचने पर मजबूर करेगी की आखीर क्यूं हमे यह सावरकर जी ने प्रकाशित किया इतिहास नही सिखाया जाता ! जबकी हम विजयी थे , है और रहेंगे, ऐसा चित्र क्यूं निर्माण किया जाता है की हम दासतां मे जी रहे है २००० सालोंसे ! क्या हम ही मूर्ख नहीं, जिन्होंने सावरकरजी की किताबे नही पढी ? क्या देश के प्रति इस इतिहास को जगाये रखना, इतनासा भी दायित्व हम नहीं निभा सकते ? अखंड भारत के लिए ! सनातन संस्कृति के लिए !

यह मैने सारांश बनाया है, मुख्य लेख तो बहुत बड़ा है और बहुत रोमांचक और वीररस से पूर्ण है | इस लिंक से डाऊनलोड करो बुक्स और पढो ! 
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१. चाणक्य-चंद्रगुप्त





जन्मतः श्रीमंत युवराज अलेक्झांडर पारसीक राष्ट्र पर सहज विजय से अत्यंत गर्वित हो संपुर्ण विश्व को जितने निकला |


परंतु शुरुवात में ही आर्यावर्त के सभी गणराज्यों ने उसे अपनी औकाद दिखादी | पहला संघर्ष किया , राजा पौरस ने ! विपरीत परिस्थिती और गांधारराज आंबिक का ग्रीक तुष्टीकरण का हथखंडा और अन्य कारणों की वजह से राजा पौरस को हार का मूंह देखना पडा | फिर एक एक कर सभी गणराज्यों ने संघर्ष किया, पर अपने दुराभिमान के कारण कोई ४-५ गणराज्य एक होकर नही लढे | यदि केवल और १-२ गणराज्या राजा पौरस का साथ देते, तो इतिहास मे शायद चाणक्य-चंद्रगुप्त न होते |


जिन गणराज्यों ने कडा प्रतिकार किया उनकी सूची :

सौभूती एवं कठ गणराज्ये, आयुधजीवी, यौधेय गणराज्य, मालव और शूद्रक गणराज्य, इ कई गणराज्यों ने संघर्ष किया |


अलेक्झांडर एक संघर्ष जीत कर आगे बढता, तो पिछले जीते राज्य संघर्ष कर उठते और इसी प्रकार इन सभी छोटे छोटे गणराज्यों ने अलग अलग संघर्ष किया | जब अलेक्झांडर ग्रीक सेना की हठ पर, कुछ विश्वासू मंत्रीयों पर जीते हुए राज्यों का कार्यभार सौंपकर, मेसेडोनिया लौट जाने को तय्यार था , तब उसे फिरसे जीते हुए इन गणराज्यों से पुनः संघर्ष करना पडा |


इसी एक संघर्ष में जब एक गणराज्य के केंद्रस्थान पर युद्ध चल रहा था और वह राज्य पार कर जाने के लिए ग्रीक सेना जूंझ रही थी, तब कहीसे एक जहरीला बाण आया और अलेक्झांडर को छलनी कर गया |


इस आघात से और मेसेडोनियन सैन्य में उत्पन्न विद्रोह की भावना के कारण मनोबल क्षीण हुआ अलेक्झांडर पहले ही टूट चूका था और धीरे धीरे उस विषैले बाण के मंद प्रभाव से कुछ ही महिनों मे अलेक्झांडर की मृत्यू हो गयी |


अलेक्झांडर की मृत्यू के बाद सिर्फ ६ महिनों के अंदर अंतर भारत ठहरे ग्रीक मंत्रीयों का भारतीयों ने शिरच्छेद कर डाला, सिर्फ यहि नही ग्रीकों की सारी निशानीयाँ भी मिटादी | इससे तबके भारतवासीयों का स्वाभिमान, देशाभिमान, संस्कृति का अभिमान जागृत था | अलेक्झांडर को विषैला बाण जिस योद्धा ने मारा था, वह था चंद्रगुप्त ,

आचार्य चाणक्य का शिष्य !

ग्रीकों की सारी निशानीयाँ मिटा कर भारत को एकछत्री सम्राट देना बहुत आवश्यक था | ग्रीक आर्यावर्त के नजदीक ही राज्य बनाकर रहने लगे | अलेक्झांदर का सेनापती सेल्यूकस फिरसे आक्रमण करेगा यह तो निश्चित था | चंद्रगुप्त और चाणक्य ने सैन्य जुटाकर मगध के आततायी और अय्याशी में डुबे हए महापद्मानंद का शिरच्छेद कर डाला और चंद्रगुप्त आरुढ हुआ मगध के सम्राटपद पर ! भारत को मिला एक धर्मधुरंधर सम्राट चंद्रगुप्त |


प्रेम-मैत्री-बल के साथ चंद्रगुप्त ने एक एक स्वतंत्र गणराज्य अपने राज्य के साथ जोडना आरंभ कर दिया | अगली बार जब यवन सेल्यूकस ने आक्रमण किया, तो हालात बदल गए थे | उसका सामना हो रहा था, विभिन्न गणराज्यों मे बटे हुए आर्यावर्त से नहीं, बल्कि आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त के अखंड भारत से | जिसकी सीमायें सिंधू नदी अपितु नैसर्गिक और सामरीक सीमा हिंदुकुश थी | आगे आप सभी जानते है, की सेल्यूकस आया था युद्ध करने , पर सम्राट चंद्रगुप्त को जवाई बनाकर चला गया |


खैर सिकंदर तो जगज्जेता क्या भारत का आंगन भी नही देख पाया | परंतु , भारत के सोये हुए लोगों ने यह रट लिया, एक्झाम्स पास करने के लिए , की अलेक्झांडर दि ग्रेट था | जिन्होंने रटा उनकी बदनसिबी ! हम तो सावरकर जी के शब्द गायेंगे -

" अन्य कोणाचा असो शिकंदर, पण भारत जेता ना | अंगणहि ना तये देखिले, कळलाही ना कुणा कुणा |"


२. यवनान्तक सम्राट पुष्यमित्रशुंग





अति सर्वत्र्य वर्जते |

आततायी हिंसा जिस प्रकार वर्ज्य है, ठिक उसी प्रकार आततायी अहिंसा भी वर्ज्य है | आततायी हिंसा का प्रतिकार करने चंद्रगुप्त ने नंद वंश का अंत किया था और मौर्य वंश के लोगों ने अपनायी आततायी अहिंसा का अंत भी निश्चित था | शस्त्रबल को गौण माननेवाली, राष्ट्र की सीमाओं को जिसने निर्बल कर रखा उस आततायी अहिंसा को आश्रय देनेवाले , सम्राट चंद्रगुप्त को स्वर्ग में भी घृणा आए ऐसे निचेष्ट पडे हुए , भूमी पर अब भार बने रहे उस अशोक के वंश को मिटाने जन्मा था मागध पुष्यमित्र शुंग और मगध को मिला नया वंश, शुंग वंश |


मौर्य वंश की आततायी अहिंसा ?


हाँ जिस चंद्रगुप्त ने शस्त्र उठाकर संपुर्ण भारत को एक छत्र दिलवाया था , उसीके वंशज अशोक ने राज्यपद का स्वीकार करने के पश्चात 'शस्त्रविजय' को गौण बतलाया और अहिंसा का पुजारी बन गया | इतनेपर भी ठिक होता पर उसने वैदिक लोगों पर धर्मबलात्कार करना आरंभ कर दिया, उनके यज्ञयागों पर पाबंदी लगा दी, तथा कई अन्य विधीयों को हिंसक बताकर जबरन बंद कर दिया | सैन्य के लिए खर्च होने वाला धन विहारों मे बड़ी संख्यामें भरती होनेवाले बौद्ध भिख्खू परिवारों की भरण पोषण मे लगा दिया | सैन्यबल को गौणत्व आकर राजापर अन्न के लिए प्रजा निर्भर होने लगी | वैदिक धर्मीयों का प्रक्षोभ बढ़ रहा था, पर मुख मे अहिंसा का पान लिए अशोक का मूंह ब्राह्मणबलात्कार, परधर्मबलात्कार से लाल हो चुका था |


पर इस समय हमारे यवन शत्रू क्या कर रहे थे ? ग्रीक सेल्यूकस निकेटर सम्राट चंद्रगुप्त से पराजित होकर और उससे संधी कर पुनः अपने देश नही लौटा, बल्कि वह भारत के नजदिक बॅक्ट्रिया मे राज्य स्थापन करके रहने लगा | मूल ग्रीकों से नाल टूट चुका यह ग्रीक राज्य बल में बहुत निकृष्ट हुवा था, पर भारत की स्थितीयों पर ध्यान दिए हुए बैठा था, की कब भारत की राज्यव्यवस्था खोकली हो और हम फिरसे आक्रमण कर दे और भारत को जित ले |


अशोक के मृत्यू के उपरांत जो राजा बने वे केवल अपने वंश के कारण, अन्यथा पौरुष तो उनमें जैसे खत्म हो चुका था | हाँ सत्यमें खत्म हो चुका था | सिकंदर की तुलना में अत्यंत निकृष्ट बॅक्ट्रियन ग्रीक राजा और उसके सैन्य बिना युद्ध किए हिंदुकूश पार करके मगध तक पहुच गए, पर मगध में राजाश्रित बौद्ध भिख्खू यही प्रचार करते रहे की 'शस्त्रबल पाप है', 'अहिंसा परमो धर्मः' |


पर दक्षिण में स्थित वैदिक राष्ट्रों को माँ भारती का यह अवमान सहन नहीं हुवा | मौर्य वंश को नष्ट करने की कोई इच्छा नहीं थी, पर ग्रीकों को तो भगाना था , इसलिए मगध पर होनेवाला आक्रमण कलिंग के वैदिक धर्मावलंबी राजा खारवेल ने अपने उपर ले लिया | ग्रीकों को ऐसा खदेडा की उन्हें पंचनद के पीछे हिंदुकूश तक भगाया | पर राज्यांतर्गत समस्याओं के कारण उन्हे फिरसे कलिंग में लौटना पडा | कलिंग पहुचकर राजा खारवेल ने राजसूय यज्ञ करवाया , अशोक के धर्मपरिवर्तन करने के पश्चात पहली बार कोई वैदिक यज्ञ हुवा, प्रजा का आनंद तो बयान नहीं किया जा सकता | खारवेल जैसे ही अपने राष्ट्र पहुचा, ग्रीकोंने फिरसे मगध पर आक्रमण करने की योजनाए बनायी |

पर मौर्य राजा बृहद्रथ क्या कर रहा था ? वह शस्त्रबल की निंदा तथा राज्य को बौद्ध मठों मे रुपांतरित करना और सैनिकों को भिख्खू बनाने में लगा हुवा था | ८०% प्रजा जिनका विवेक जागृत था उन्हे बस एक योद्धा से ही आशा थी, वह योद्धा जो जन्मतः था तो वैदिक ब्राह्मण पर आज वो मगध में सेनापती था | सिर्फ नाम के लिए मगध में सेना थी, ऐसी सेना जिसे ना तो युद्ध की आज्ञा करनेवाला कोई था , ना मार्गदर्शन | पर मगध में राज्यक्रांती तो होने वाली थी | क्रांती का स्त्रोत कौन था पता नहीं, पर हाँ, नेता था सेनापती पुष्यमित्र शुंग | एक दिन बृहद्रथ जब सैन्यपरिक्षण कर रहा था, तब अचानक कोलाहल सा मच गया, जिसमें सेनापती पुष्यमित्र ने राजा बृहद्रथ मौर्य का शिरच्छेद, वध कर दिया | पुष्यमित्र क्या स्वयं को राजा घोषित करता , बल्कि बृहद्रथ के वध के बाद एक क्षण का विलंब न कर सम्राट पुष्यमित्र का जयघोष होने लगा, मगध फिरसे सनाथ बन गया | इ.स.पू. १८४ की यह बात है |

राजपद प्राप्त होते ही यवनान्तक सम्राट पुष्यमित्र ने बलाढ्य सेना खडी की और अयोध्या मे स्थित ग्रीक सेना पर आक्रमण कर दिया, और इस बार डेमेट्रियस का पीछा कर के उसे सिंध के पार भगा दिया | इस प्रकार ग्रीकों का पुरा साहस तोडकर रख दिया सम्राट पुष्यमित्र ने | आगे जब शकों का आक्रमण हुवा तब बॅक्ट्रियास्थित ग्रीकों का नामुनिशान ही मिट गया |

उसके पश्चात प्रेम और बल दोनो का उपयोग कर पुष्यमित्र ने फिरसे आर्यावर्त को एक छत्र के नीचे लाने का ठान लिया और अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया | यह उसका अधिकार था, सीमांत प्रदेश बलाढ्य होना ही चाहिए, यह सीख मिल चुकी थी आर्यावर्त को | राष्ट्रभक्ति को पाप ठहराने वाले उन हिंदूद्वेष्टे भिख्खूओं का भी उचित समाचार लिया | वैराग्य यदि वृत्तीमें हो और संन्यास यदि कर्मफलों मे हो, तो शोभा पाता है, कोई यदि वृत्ती का ही संन्सास ले, कर्मों का संन्यास ले, तो ऐसे व्यक्ति और पत्थर मे क्या अंतर रह जाता है ? वृत्ती सत्कर्म के लिए और कर्म धर्म के लिओ आवश्यक है | मित्रो, बौद्ध लोग एवं युरोपियन इतिहासकार चिल्ला चिल्ला कर कहते है की सम्राट पुष्यमित्र ने बौद्धों का धार्मिक छल किया, पर यह सत्य नहीं है | सम्राट ने केवल ग्रीकों को केवल हिंदूद्वेष के कारण जिन भिक्खुओं ने मदद की थी उन्हे माँ भारती के द्रोह के इल्जाम मे दंडित किया ! ना ही उन्होंने बौद्ध पंथीयों का घर घर घूसकर कत्लेआम किया, ना ही उन्हे जबरन यज्ञ का यजमान बनाया, ना ही उन्हे चीटी मारने को कहा ;-) | क्या हम भारतवासीयों से माँ भारती तथा माँ भारती के वैदिक परंपरा का मान रखने की भी नहीं अपेक्षा कर सकते ? यदि कोई वैदिक परंपरा का अपमान करेगा, तो वह निश्चित ही माँ भारती से द्रोह करेगा , यह मेरे इन बंधुओं ने सावित किया है , एक बार नहीं , बार बार !


३. शक-कुशाणान्तक सम्राट विक्रमादित्य




शक, कुशाण, हूण टोलीयों के आक्रमण की पार्श्वभूमी


पिछले लेख में हमने देखा की ग्रीकोंने भारत से हार ने के बाद वापस ग्रीस जाने के जगह निकट बाल्हिक अर्थात बॅक्ट्रिया प्रदेश मे बसना पसंद किया. इसी बॅक्ट्रिया के आगे थी शक नामक रानटी, पशुवत लोगोंकी सत्ता, उसके आगे रहते थे शकों से भी क्रूर , रानटी टोलीयाँ कुशाण और कुशाणो के आगे रहते थे उनसे भी अत्यंत क्रूर एवं राक्षसी हूण! इन हूणों ने कुशाणो पर आक्रमण कर उन्हे उनके प्रदेश से निकाल दिया, फिर प्राण बचाती यह रानटी धाड आ पहुंची शको के प्रदेशों मे ! जहाँ उन्होने यही हथखंडा अपनाया, उन्होने शकों को अपने प्रदेश से भगा दिया ।


शक आ पहुंचे सिंध में

और इस प्रकार शक आ पहुचे बलुचिस्तान, सिंध, काठेवाड और गुजरात, अपरान्तक याने कोकण प्रांत में, किसी आसमानी संकट की तरह , अनपेक्षित, तुफानी, विनाशकारी संकट ! जैसे कोई त्सुनामी आए और अपने साथ बहुत विनाश कर जाए, उसी प्रकार यह आकस्मिक आक्रमण ने भारत को उज्जयनितक तक हिलाकर रख दिया !

कोंकण तक फैले हुए आंध्र को यह शकों का आक्रमण सहज ही संतप्त कर गया । वैदिक आंध्र शालिवाहन राजाओं ने शकों का ऐसा समाचार लिया की उन्हे उपर नर्मदा के आगे मार भगाया । उपर उज्जयैनि घूसे शकों को मालव और यौधेय गणराज्य ने पहले ही झंझोड कर रख दिया था और उसीमे दक्षिण से आंध्र ने भा शकों की कमर तोड रखी । उज्जयिनी में शकों के राजा नहपान को मार कर मालव गणराज्यने शकों का आक्रमक डंख ही तोड दिया (इ.स.पू. ५७) । मालवों की इस विजय के स्मृतिप्रित्यर्थ मालवगणोंने मालव संवत् शुरू किया ।

आंध्र के शालिवाहन राजाओं ने गुजरात, सौराष्ट्र और सिंध में भी शकों को पराभूत किया, वहाँ पर स्थित शक राजाओं ने शालिवाहनों का वर्चस्व मान्य किया, इतना ही नहीं अपितु उनसे रक्तसंबंध भी जोडे , अपनी कन्याए शालिवाहन राजा को देकर , इतना ही नहीं अपितु शकों पर भारतीय संस्कृति का ऐसा असर हो रहा था की शकों के कई राजाओं ने वैदिक यज्ञयाग एवं वैदिक देवताओं की, खास कर रुद्र शंकर की उपासना करना शुरू कर दिया । यह बहुत बडा धर्मविजय था शकों पर , पर यह विजय बलात्कारित नहीं था, शकों ने खुद वैदिक संस्कृति को अपनाया, इसिलिए उनके राजाओं के नाम रुद्रसेन आदि मिलते है और उन्होने संस्कृत भाषा को राज्यभाषा भी घोषित किया था इसके भी प्रमाण उपलब्ध है । पर थे तो वो म्लेंच्छ , वैदिक विधीयों को अपनाकर वे वैदिक संस्कारोंसे पूर्ण तो नहीं हो पाते । उनका बंदोबस्त करना अब भी शेष था ।

कुशाण आ थमे गांधार प्रांत में
वहाँ हूणों की सत्तापिपासा और बढ़ रही थी । उन्होने कुशाणों पर फिरसे हमला बोल दिया और शकों की तरह कुशाण भी आ थमे हिंदुकुश पार गांधार के प्रांत में ! गांधार मे मानवहिंसा कर वह रक्तपिपासू टोलीयाँ आ पहुची पंजाब में और पंजाब मे अपना राज्य स्थापन किया । उन कुशाणों के राजा कनिष्क (इ.स. ७८/इ.स.१२०) ने शकों से झूंज कर पहलेसे शक्तिमे क्षीण हो चुके मालव, गुजरात, सौराष्ट्र , सिंध जीत लिए और वे इतने आक्रमक थे की शालिवाहन राजाओं को भी अपना सैन्य नर्मदा के प्रदेश से उठाकर अपनी राज्य की सीमाओं की सुरक्षा में लगाना पडा । आंध्र का कोकण भी अंततः कुशाणो के हाथ लगा । चीन मे भी कुशाणों ने बहुत रक्तपात कर कई राज्य जीत लिए थे । इस राजाने बौद्ध धर्म स्विकारा और इसके नातूने वैदिक संस्कृति का अवलंबन किया और अपना नाम भी ‘वसुदेव’ रखा । एक प्रकार से यह वैदिक संस्कृति का कुशाणो की रानटी, रक्तपिपासू संस्कृति पर धर्मविजय ही था ।


भारत को मिला नया छत्र, वहीं पाटलीपुत्र से ही !


कनिष्क की मृत्यू के उपरांत शतक की अवधी में ही कुशाणों ने जीते हुए कई शक और हिंदू राज्योने कुशाणो का अधिपत्य नकार दिया और स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया । इसी गडबडी मे एक और राज्य स्वतंत्र हो गया , हाँ वही राज्य जिसने नंद वंश देखा, फिर मौर्य वंश, फिर शुंग वंश और अब... । हाँ वही पाटलीपुत्र ! पर अब कोई पहला वंश नही था । पाटलीपुत्र को शक-कुशाणों की लड़ाई मे एक नया वंश मिला, वैदिक धर्माभिमानी, विष्णू का उपासक, गुप्त वंश ! और राजा कौन था ? चंद्रगुप्त प्रथम (गुप्त वंश) इ.स. ३२०


इस गुप्त राजाने पराक्रमसे पाटलीपुत्र को मगध, प्रयाग और अयोध्या से जोड़कर ‘महाराज’ यह उपाधी प्राप्त की । चंद्रगुप्त प्रथम के पश्चात गद्दी पर आया, समुद्रगुप्त , जो इतिहासमे ‘हिंदू नेपोलियन’ के उपाधीसे प्रसिद्ध है । राज्यपदपर आते ही वह चाणक्य-चंद्रगुप्त का स्वप्न अखंड भारत साकार करने में जूट गया । सभी छोटे छोटे,परंतु स्वतंत्र राज्य जीत उन्हे अपने राज्य से जोडता चला गया । अंततः उत्तर-दक्षिण भारत में दिग्विजय कर अश्वमेघ यज्ञ आरंभ कर ‘सम्राट’ यह उपाधी प्राप्त की । शक-कुशाणों को भारत से खदेडने की मोहिम पर यह सम्राट लग गया । तब गांधार में कुशाणो का राज था , लेकिन उन कुशाणों ने भी सम्राट समुद्रगुप्त का अधिपत्य मान्य किया ।

सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने मरणोपरांत कौन राजा बनेगा, सह पहले ही सुनिश्चित किया था, वह था उसका पराक्रमी पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय । जेष्ठ पुत्र रामगुप्त राजा बनने के लायक न होने के कारण चंद्रगुप्त द्वितीय को राजा घोषित किया था । पराक्रमी सम्राट समुद्रगुप्त के मरणोपरांत सबकी इच्छा और आज्ञा को लांघकर रामगुप्त ने स्वयं को राजा घोषित कर दिया । पर वह इतना नपुंसक था की उसके राजपद पर आनेके उपरांत वह साम्राज्य सिर्फ नाम के लिए साम्राज्य रहा और रामगुप्त शको की कटपुतली । इतिहास गवाह है की तत्कालीन एक म्लेंच्छ शक राजा ने रामगुप्त को आज्ञापत्र भेजा , ‘तुम्हारी सुंदर, तरुण स्त्री गृहदेवी को मेरे पास भेज दो, अन्यथा युद्ध के लिए सज्ज हो ।’ केवल युद्ध टालने के लिए वह नपुंसक राजा अपनी लक्ष्मी को गीधडो के पास भेजने को तय्यार हुवा । यह देख चंद्रगुप्त का संयम छूट गया और रामगुप्त की पत्नी को अपने शरण में ले लिया । फिर कूटनीती का उपयोग कर चंद्रगुप्त राजा स्वयं स्त्री वेश की रानी गृहदेवी बन कर गया और जब शक राजा उसके सामने आया तब तलवार से उसका मस्तक धड़ से अलग कर दिया । इस साहसी कृत्य के बाद प्रजा ने भी चंद्रगुप्त को ही राजा बनाया जाए इसलिए उठाव किए । इसी जनप्रक्षोभ मे रामगुप्त का अंत हो गया और फिर जनता की मांग पर चंद्रगुप्त साम्राज्य पद पर आरुढ हुवा । राजपदपर आते ही उसने शकों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की । तब जो बलाढ्य शक था रुद्रसिंह, उसका नाश कर चंद्रगुप्तने सिंध, कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात, मालव इ. को शकोसे पुर्णतः मुक्त कर अपने राज्य को जोड दिया । तत्पश्चात जब सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी मे प्रवेश किया तब राष्ट्रिय उत्सव मनाया गया । राजा चंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य यह नाम धारण किया और पहलेसे प्रचलित जो मालव संवत था, उसीका नाम रखा गया ‘विक्रम संवत्’ ।

व्हिन्सेन्ट स्मिथ इतिहासकार कहता है, “We may feel assured that differences of a race, creed and manner supplied the Gupta monarch with special reasons for Desiring to suppress the impure foreign rulers of the Western India. Chandragupta Vikramaditya although tolerant of Buddihism and Jainism was himself an orthodox Hindu, especially devoted to the cult of Vishnu, and as such could not but have experienced peculiar satisfaction in 'Violently uprooting foreign chieftains.”

भारतके इतिहास मे कई राजा होकर गए, पर शक-कुशाणो को अंत करनेवाले चंद्रगुप्त विक्रमादित्य बहुत प्रिय सम्राट थे भारत वंश के । उसके कालमें भारत कितना संपन्न था, यह चीनी इतिहासकार फायियान ने वर्णन करके रखा है । इ.स. ४१४ तक भारतीयों को अपने प्रिय सम्राट विक्रमादित्य का रामराज्य उपभोगने मिला ।


४. हूणान्तक यशोधर्मा
मित्रो, हमारा पुरातन इतिहास कितना गौरवशाली है, यह बात को बगल भी दे तो भी हमारा आधुनिइतिहास का वैभव, किर्ती छुपायें नहीं छिपती, इतिहास की पुस्तकों में , हम जैसे हिन्दूराष्ट्रवादीयों की सांसों में आधुनिक इतिहास की विजयगाथा बसी हुयी है, हमेशा हमेशा के लिए ...
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पहिला सुवर्णतिहास था अलेक्झांडर को नेस्तनाबूत करनेवाले , आततायी नंद वंश का मूलच्छेद करनेवाले चाणक्य-चंद्रगुप्त मौर्य का !
दुसरा सुवर्णतिहास था बॅक्ट्रियास्थित ग्रीकों के वंशजों के आक्रमण का विजयी उत्तर देनेवाले तथा आततायी अहिंसक अशोक के वंश का शिरच्छेद करनेवाले सम्राट पुष्यमित्र शुंग का !
तिसरा सुवर्णतिहास था शक-कुशाणों के रक्तपिपासू आक्रमणों का बंदोबस्त करनेवाले गुप्तवंशीय सम्राट चन्द्रगुप्त अर्थात विक्रमादित्य का !
और यह चौथा सुवर्णतिहास है युरोप, चीन और रोम को लहूलहान कर छोडनेवाले हूणों का दमन कर पुनः धर्मविजय कर दिखलानेवाले वैदिकधर्मीय सम्राट यशोधर्मा का !



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हूण एक खूनखार , रक्तपिपासू लोगों का झुंड था, जो मूलतः स्थित था चीन के नजदीक , परंतु इस बडे रक्तपिपासू झुंड ने पूर्ण युरोप, रोम और चीन को लहूलहान कर रखा था | गिबन का 'Decline and Fall of Roman Empire' तथा 'The China Wall' का इतिहास इन हूणों की देन है | ये हूण लोग विजय के लिए नहीं अपितु संहार के लिए आक्रमण करते थे | चीन से हिमालय और हिमालय से हो हूण आ पहुंचे गांधार में | परंतु अब गांधार किसी देशद्रोही आंभिक राजा के हाथ नहीं अपितु गुप्तवंशीय सम्राट विक्रमादित्य के वीरपुत्र कुमारगुप्त के अधिपत्य में था | चीन की तरह आर्यावर्त में नरसंहार करने का हूणों का मनसुबा पहलेसे हूणों के लिए सजग सम्राट कुमारगुप्त तथा उनके भावी उत्तराधिकारी सम्राट स्कंदगुप्त ने विफल कर दिया | फिर स्कंदगुप्त के उत्तरकाल तक इन हूणों ने भरतभूमीपर नजर तक नहीं डाली थी | हूणों का अगला आक्रमण हुआ उनके खिंखिल नामक नेता के नेतृत्व में | इस बार हूणों ने आर्यावर्त की वायव्य सीमा का सेन्यतट उद्ध्वस्त कर दिया यह सून वृद्ध सम्राट स्कंदगुप्त स्वयं युद्धभूमी में उतरा | अत्यंत पराक्रम दिखाकर स्कंदगुप्त ने युद्धभूमी में ही युद्ध में प्राण त्याग दिए , एक सच्चे हिंदू वीर को शोभा दे ऐसा अंत उन्हे प्राप्त हुआ | परंतु गुप्तवंश क इस अंत के बाद हूणों ने सारा पंजाब और आधा उत्तर भारत कब्जे में ले लिया | वहाँ इराण के राजा फिरोज को मारने के पश्चात वहाँ लढ रहे हूण भारत क उनके लोगों से आ मिले और रातोरात हूणों का सैन्यबल दुगना हो गया । फिर उस महाकाय सेना ने हमारा मालव प्रांत और उज्जयिनी नगरी भी हथिया ली ।
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अब कहानी में थोडा बदलाव आता है । पहले खिंखि फिर तोरमाण, और तोरमाण के बाद जो हूणों का राजा बना वो मिहिरगुल वह अपने पुर्वजो से अत्यंत पराक्रमी था । आश्चर्य तो यह है की इस मिहिरगुल ने वैदिक धर्म अपना लिया और रुद्रदेवता उसकी उपास्य देवता थी । उसके राज्य में वैदिक विधी चलते थे और संस्कृत भाषा में संपूर्ण राज्यव्यवहार संपन्न होते थे । परंतु था तो वह क्रूर, उसने वैदिकों को तो बक्ष दिया , परंतु वैदिकों का मत्सर करनेवाले बौद्धपंथीय उसके कोप का शिकार बने और उसने बौद्धो का तथा उनके संस्कृति के चिन्ह जो स्तूप आदि थे उनका संहार शुरू कर दिया । अब मिहिरगुल था तो वैदिकधर्माभिमानी, परंतु जडे तो उसकी बाहर के देशों में थी, था तो वह भारत के लिए म्लेंच्छ ही, वैदिक कर्मकांड अपनाने से कोई वैदिक नहीं हो जाता अपितु उससे संस्कारों का मिश्रण हो निकृष्ट, निर्धर्मी, निराभिमानी, नपुंसक प्रजा उत्पन्न होती है, जैसे की मुसलमान और अंग्रेजो के वजह से हुआ । अतः उसका पतन तो निश्चित था । धर्माभिमानी वैदिक राजा यह कतई नहीं सहन करते की आर्यावर्त पर किसी म्लेंच्छ का राज्य है ।
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अब पुनः गुप्तवंश की ओर आते है । गुप्तवंश का अस्त होने के बाद उनके सभी मांडलिक राजा स्वतंत्र होकर अपने राज्यों की व्यवस्था देखने लगे । सभी वैदिक धर्मीय अतः राष्ट्राभिमानी थे, परंतु किसी में हिम्मत नहीं थी की उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य के पवित्र सिंहासन को उस म्लेंच्छ(परकिय) राजा से मुक्त करा सके । पर एक राजा था , बहुत छोटे से राज्य का राजा, परंतु उसका ध्येय और साहस अटल था, उसका नाम है, यशोधर्मा । यशोधर्मा ने पुनः वैदिक धर्मीयों का राज्य स्थापन करने का प्रण लिया और जितने राजाओं को इस कार्य में संघटिक कर सका, उतने राजाओ को साथ लेकर उसने मिहिरगुल के राज्य पर सभी दिशाओ से हमला बोल दिया । और परिणाम अपेक्षित था वही निकला, मिहिरगुल पकडा गया और राजा यशोधर्मा उसका शिरच्छेद कर ही डालता परंतु मगधनरेष बालादित्य ने उसे छोड देने का हठ लिया और मिहिरगुल पुनः आझाद हो सेना एकत्रित करने लगा । शत्रू को यूं छोड देना साप को दूध पिलाने जैसा होता है | यह भारत तब भी नहीं सिखा और आज भी नहीं ।
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परंतु उज्जयिनी पर आरुढ हुआ विजयी महाराजाधिराज यशोधर्मा । यशोधर्मा ने 2 किर्तीस्तंभ का निर्माण किया , जो आज भी वैदिकों के राष्ट्राभिमान के साक्षी है । परंतु मिहिरगुल का क्या हुआ ? वह सेना एकत्रित करते करते ही मर गया । जो बचे छोटे-मोटे हूणों के राष्ट्र थे, वो भी अन्य वैदिक राजाओं ने हस्तगत कर लिए और पुनः वैदिक ध्वजा उत्तर में फहराने लगी । धर्मो सदा विजयते । इस प्रकार चौथा सुवर्ण इतिहास रचा गया ।
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Dr. Jaiswal writes, “The Huns were fully crushed within a century by the successive Hindu dynasties.”
Vincent Smith writes about this victory on Hun, “After the defeat of Mihiragul and the extinction of the Hun power on the Oxus, India enjoyed immunity from foreign attack for nearly 5 centuries.”

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