परमात्मतत्त्व/ईश्वरत्व :
जब कुछ नहीं था , ना ग्रह, तारे, ना व्हॅक्यूम, ना अंतरिक्ष और ना कोई जीव; तब जो था वह स्वयंस्फुर्तीसे स्फुरण पा रहा था, उसे ना आकार था, ना रंग, ना रुप, वह था यह कौन कहता क्यूंकी उसके अलावा उसे जाननेवाला कुछ नहीं था | आप अगर व्हिज्युअलाईज करना चाहते हो, तो घना गहरा अंधकार बस यहीं चित्र मन में लाए | गहरा घना अंधकार था | समय भी न हीं था, क्यूंकी समय की मर्यादा तो व्यक्त(material) को है, अव्यक्त(non-material)को नहीं |
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वह परम तत्त्व(eternal/divine soul) स्वयंस्फुर्तीसे परिवर्तीत हुवा और प्रकट हुयी शक्ति/माया
divine energy) | उस समय जो ध्वनी हुवा वह ओमकार था , वह था सृष्टी का आरंभ | ओमकार से अभिव्यक्त हुयी मूल माया जो की अव्यक्त थी मतलब कुछ नहीं, केवल घना अंधेरा | वह शक्ति सत्त्व , रज, तम इन गुणों के प्रभाव से परिवर्तनशील थी | अव्यक्त शक्ति फिर पंचीकरणादि क्रियाओं से अव्यक्त पंचमहाभूतों के रूप में आयी (वायू, अग्नी,जल,पृथ्वी,नभ) | इन अव्यक्त पंचमहाभूतों का रुपांतर हुवा व्यक्त पंचमहाभूतों में | व्यक्त पंचमहाभूतों मे परिवर्तन तथा अन्य क्रियाओं से स्थित्यंतर हो आज की सृष्टी निर्माण हुयी | व्यक्त पंचमहाभूत और अव्यक्त पंचमहाभूतों से एक विशिष्ठ प्रकृति(material) निर्माण हुयी, जिसे हम जीव के संज्ञा से जानते है |
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यह जीव विशेष क्यू है ?
इसमें कौनसे इंद्रिय है ? जीव समुच्चय है सूक्ष्म मन, बुद्धी, चित्त तथा 'अहं' स्फुरण/चैतन्यतत्त्व : (consciousness)| जीव परा(beyond visibility) प्रकृति है और जीवमें स्थित शुद्ध चैतन्यतत्त्व पुरुष है यह गीता कहती है | (कई लोग परा प्रकृति को पुरुष कहते है, पर हम नहीं कहेंगे क्यूंकी पुरुष की व्याख्या पिंड से लेकर ब्रह्मांड तक हर एक के लिए बदलता है अर्थात सापेक्ष है, अतः हम मूल चैतन्यतत्त्व को ही पुरुष कहेंगे |) जीव के अलावा १० स्थूल इंद्रिय और ११ वा स्थूल मन से बनता है हमारा देह जो की अपरा प्रकृति के नाम से जाना जाता है |
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यह सब प्रकृति और पुरुष का खेल कल्प के अंतकाल में फिरसे अव्यक्त रूपमें लीन होता है और नये कल्प के आरंभ में वह अव्यक्त से पुनः व्यक्त रूपमें आता है |
यहां जो परमतत्त्व है, उसे हम आज परब्रह्म के नाम से जानते है |
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स्वयं उस परमतत्त्वनेही |
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कैसे ? कब ?
जब मनुष्य की निर्मिती हुयी, तब मनुष्य को ईश्वर के विषय में सहज कुतूहल जागा | मनुष्य देख रहा था मौत और नई जिंदगी का निर्माण ! पर ऐसा क्यूं चल रहा था यह वो नहीं जान पाया | तब स्वयं परमतत्त्व किसी मनुष्य के देह में अवतरित हुये और योग्य समय पर फिर वह ओमकार ध्वनी आसमान में गुंज उठी और उसके बाद जो शब्द निकले वो थे परमात्मा के शब्द, उन शब्दों का आशय भी परमतत्त्व का स्वरुप ही था , उन शब्दों को हम आज वेदों के रुप में जानते है | अवतरित परमतत्त्व ने उन वेदों को ग्रहण कर , समझ कर , कंठस्थ भी कर लिया | फिर उन अवतारी ऋषीमुनीयों ने वह वेद सभी को उनकी ग्रहणशक्ति के अनुसार सिखाने शुरू कर दिये |
कुछ जीव विचारी थे, उन्होंने सहज तत्त्व ग्रहण कर लिया, कुछ ज्ञान ग्रहण नहीं कर पा रहे थे पर भक्त थे, तो उनको समर्पण मार्ग बताया | कुछ लोग समर्पण भी ना कर पाते, उन्हे मूर्तीपूजा से प्रारंभ करने को कहाँ | इस प्रकार यह सब ईश्वरभक्त अपने अपने तरिके से उसी परमतत्त्व की खोज करने लगे और इस वैदिक पथ पर सभी उस परमतत्त्व को पाते है यह त्रिकालाबाधित अनुभव है |
हर जीव का प्रवास पुनः परमात्मतत्त्व में लीन होकर ही खत्म होता है | तब तक जन्म-मृत्यू अटल है |
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जीव परब्रह्म का अंश है या शक्ति का?
शिव और शक्ति यदि एक-दुसरे को एक मानते है, तो आदि शंकराचार्य जी क्यों यह कहते है की 'शिवोऽहम् शिवोऽहम्' (मै शिवस्वरुप हूँ) ना की 'शक्ति अहम्' (ना की शक्तिस्वरुप) ?
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सृष्टी = शिव(ब्रह्म) + शक्ति(माया)
मनुष्य = आत्मा + जीव + देह
यह 'आत्मा' ही परमात्मस्वरुप है, तथापि जीव और देह मायिक अर्थात माया के प्रभाव में रहते है | जो हमारे देह में है, वैसी ही संरचना सृष्टी की है |
अर्थात सृष्टी में जो परम तत्त्व , नित्य तत्त्व है वह शिव , शिव ब्रह्म और जो नश्वर तत्त्व है, वह शक्ति है |
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यह शक्ति समय समय पर नित्य परब्रह्मतत्त्व में विलीन होती है, तथा पुनः परब्रह्मतत्त्व में स्वयंस्फुरण हो ॐ कार से प्रकट भी होती है |
शक्ति का प्रथम रुप है - मूळ माया अथवा भागवत की भाषा में परमात्मा का स्वयं-अहं स्फुरण |
द्वितीय रुप है - अव्यक्त प्रकृति अर्थात् अहंकार और गुणों से अव्यक्त पंचमहाभूत |
तृतीय रुप है - व्यक्त प्रकृति/सूक्ष्म पंचमहाभूतों से स्थूल पंचमहाभूत |
अंतिम रुप है - सृष्टी जो हमें नजर आती है,
यह संपुर्ण प्रक्रिया विस्तारपुर्वक कई ग्रंथों में है | (उदा. विवेकचुडामणी, आदि शंकराचार्य यह गुगल पर है |)
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हर नये रुप के साथ पुराना रुप पुर्णतः नये रुप में परिवर्तीत नहीं होता, बल्कि सूक्ष्मतः व्याप्त रहता है, जिस प्रकार स्निग्धता दूध, दही और घी सभी रुपों में समान रुप से व्याप्त रहती है, ठिक उसी प्रकार परब्रह्म इस व्यक्त प्रकृति को व्याप्त किये हुए है, अतः सृष्टी को हम शिव और शक्ति का खेल के रुप में जानते है | ठिक उसी प्रकार हमारे जीव और देह को आत्मतत्त्व सूक्ष्मतः व्याप्त है, वहीं आत्मतत्त्व हमारी पहचान , हमारा स्वभाव अर्थात अध्यात्म है |
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यह परमात्मतत्त्व प्रकृति को व्याप्त होने के कारण ही कहीं भी नर/नारी/पशु/स्तंभ किसी भी रुप में आविष्कृत हो सकता है, उसे हम सहसा अवतार कहते है | इसके अलावा जीव जो शिवस्वरुप प्राप्त कर लिया, वह भी परमात्मस्वरुप ही बन जाता है, देह रहते हुए | वहीं मोक्ष है, ठिक जैसे कई संत मुक्त हुए |
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मै यह क्यूं बता रहा हूँ ?
ईश्वर के सत्य स्वरुप को पहचाने बिना हम उसे प्राप्त नहीं कर सकते | उसे जाने बिना की गयी प्रार्थना अपुर्ण होती है, ईश्वर को पहचान उसे प्राप्त करने पर ही पूर्णता आती है |
अतः हम शिवस्वरुप है यह जान कर मन, बुद्धी और देह को मायिक भ्रम से बचाना आवश्यक है ताकी हम ईश्वरी पथ से ना भटके |
जिन्हे ईश्वरी पथ पर नहीं चलना है, उनके बारे में मेरा कुछ मत नहीं है |
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